घर में किताब

विशेष संवाददाता

घर में किताब
एक दिन की बात है, मैं प्रशिक्षण संबंधि कार्य से भोपाल गया हुआ था। मेरी बड़ी बेटी मनीषा से फोन पर बात करते हुए उसने मुझे कहा कि मेरे लिए एक किताब लाना। तब मुझे पढ़ने की संस्कृति के विकास का आभास हुआ। मुझे लगा वह कोई खिलौना या कुछ अन्य वस्तु लाने के लिए भी कह सकती थी, लेकिन ऐसा क्या हुआ क्या उसने किताब लाने के लिए कहा ? मैंने जब अपने अतीत में झांका तो उसके पिछे हुए मेरे घर में किताबें रखने, लाने के प्रयास का शायद यह नतीज़ा सामने आया होगा। वह जब बहुत छोटी थी, तब से मैं उसके लिए कुछ न कुछ किताब, एकलव्य की चकमक और अब एकतारा की साईकिल पत्रिका लेकर उसे देता रहता हूं और भोपाल की इस विजिट में भी वही हुआ। मेरे दोनों बेटे के लिए कहावत कोष मनीषा के लिए भारत में चित्रकला और मेरे लिए मैंने प्रो. कृष्ण कुमार, जॅान होल्ट और अन्य लेखक मिलाकर कुल 21 किताबें खरीद लाया।
यहीं भोपाल के न्यू मार्केट में जाना हुआ। मेरे दोस्त एक घड़ी की दूकान में घूस गए। मैं घूमता हुआ आगे निकल गया। वहां पर मुझे एक बुक स्टाल दिखी, जहां से मैंने कुछ जीवनी और 3 जिलों के नक्षे खरीद लिए। मार्केट में काफी चहल-पहल और भीड़ थी लेकिन इस बुक स्टाल पर उस समय सिर्फ मैं ही था। दूकान वाले सज्जन से संवाद के दौरान पता चला कि अन्य दूकानों की तरह यहां पर भीड़ जमा नहीं होती है।
इसकी दूसरी परत मैंने समाज में खोजने की कई बार कोशिश की है, कि आखिर लोग घर में किताबें क्यों नहीं रखते हैं। मैंने सैंकड़ो लोगों से एक सवाल पूछा। जो आपसे भी पूछता हूं ? आप भी कुछ देर ठहरकर इसका जवाब सोचिए, उसके बाद आगे पढ़िए। यदि आपके पास कल से कुछ रूपए ज्यादा आने लगे तो आप अपने घर के लिए क्या खरीदोगे ?
आपका तो पता नहीं, लेकिन पता नहीं क्यों मुझे किसी ने नहीं कहा कि मैं अपने बच्चों के लिए कुछ कहानीयों किताबें खरीदकर घर में रखूंगा जो उनके दिमागी पोषण में काम आएगा। जब मैंने सोचा कि लोग ऐसा क्यों नहीं बोल पाते होंगे ? इसकी तलाश के लिए एक और बात याद आती है। हमारे एक सहकर्मी की विदाई करनी थी। उसके लिए हमारी बैठक हुई जिसमें सबने कुछ गिफ्ट जैसे सिनरी, घड़ी आदि देने की चर्चा की। जब मैंने यह बात रखी कि भाषा पर एक नई किताब प्रकाशित हुई है क्यों न हम वही गिफ्ट के तौर पर दें ? कुछ तर्को के साथ ही सही लेकिन अच्छा लगा कि मेरा सुझाव स्वीकार किया गया, जिसमें सामने से यह भी तर्क आया कि किताबें काई पढ़ता नहीं है और गिफ्ट से यादें जुड़ी होती है। वही किताब मैंने अपने लिए मंगवाने के लिए हमारे 7 लोगों के छोटे से व्हाट्सग्रुप में प्रस्ताव भेजा कि और कौन इसे मंगवाना चाहेगा ताकि एक साथ मिल जाए। सिर्फ एक साथी ने इसके लिए प्रस्ताव को स्वीकार किया। यहाँ से मुझे समझ में आया कि समाज (शायद किसी विशेष क्षेत्र में हो) में ऐसी कोई रीति नहीं है, समाज में ऐसा सामान्यतः देखा नहीं जाता है कि कोई घर में किताबें रखते हो, हां कुछ धार्मिक ग्रन्थ वे भी सीमित व्यक्ति के पास हो सकते हैं, को छोड़कर। जब कोई ऐसी औपचारि या अनौपचारिक प्रणाली ही नहीं है जो घर में किताब रखने के लिए प्रेरित या बाध्य कर सके तो आखिर इसको बढ़ावा मिले कैसे। सोचने का विषय तो यह हैं कि पढ़े लिखे व्यक्ति और अपनी आजिविका तथा जिवन जीने की शैली के प्रति चिंतित नहीं, स्वयं पढ़ते-लिखते व्यक्ति नहीं है, तो फिर उन लोगों से क्या अपेक्षा की जाए जो अभी पेट की आग तक नहीं बुझा पाए हैं।
मुझे लगता हैं कि बच्चों के लिए और अन्य किताबें घर में रखने और इसकी संस्कृति, जिससे पढ़ने की संस्कृति को बढ़ावा मिले की पहली ज़िम्मेदारी पढ़े-लिखे लोगों की है। वे बच्चों को प्रोत्साहित कर सकते हैं कि जन्म दिन पर अन्य तोहफे की बजाय क्यों न कोई किताब दे दी जाए, किसी अन्य अवसर पर सजाने व प्रदर्शन करने की बजाय क्यों न ऐसी किताब दे दी जाए जो उसके वर्तमान काम जुड़ती हो, जो उसके माध्यम से अप्रत्यक्ष रूप से समाज के किसी न किसी व्यक्ति को किसी न किसी रूप में लाभ पहूचाती हो, और तर्क के माध्यम से समाज में अपनी बात रखने का साहस भी दे पाती हो।

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